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मैं तो खड़ी हूं वहीं- उसी दरख़्त के तले,
जहां से तुम मुड़ गये थे;
सहसा!
अनूठे चांद की अठखेलियों में
अपनी खुशी घोलकर,
उसकी नील चांदनी में अपने अहं भीजकर,
अपूर्ण सारे गरज जी भर भरकर-
'गर कभी पीछे नज़र डाला-
देखोगे,
मैं तो अभी भी वहीं खड़ी हूं...
वहीं, उसी दरख़्त के तले-
जहां से तुम मुड़ गये थे,
सहसा!
जानती हूं,
बेहिसाब मोहब्बत के हिसाब-अदा का तकाजा नामुनासिब हैं:
इसलिए आजकल इस दरख़्त-तले,
उसके बैंगनी फूलों को सींचती हूं मैं,
नीरस अश्कों के दरिया से।
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