Wednesday 17 November 2021

एक कविता

*एक कविता* 
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मैं तो खड़ी हूं वहीं- उसी दरख़्त के तले,
जहां से तुम मुड़ गये थे;
सहसा!

अनूठे चांद की अठखेलियों में
अपनी खुशी घोलकर,
उसकी नील चांदनी में अपने अहं भीजकर,
अपूर्ण सारे गरज जी भर भरकर-
'गर कभी पीछे नज़र डाला-
देखोगे, 
मैं तो अभी भी वहीं खड़ी हूं...
वहीं, उसी दरख़्त के तले-
जहां से तुम मुड़ गये थे,
सहसा!

जानती हूं,
बेहिसाब मोहब्बत के हिसाब-अदा का तकाजा नामुनासिब हैं:
इसलिए आजकल इस दरख़्त-तले, 
उसके बैंगनी फूलों को सींचती हूं मैं,
नीरस अश्कों के दरिया से।
🥀🥀🥀🥀

The masked waitress had placed a wooden tray with three little black porcelain bowls: one, the staple green chillies in vin...